मंगलवार, 1 सितंबर 2009

महंगाई हमारे लिए भी है

जब से केन्द्र सरकार ने छठा वेतन आयोग की सिफारिशो को लागु किया है, तब से लगता है कि महंगाई को पर लग गए है। दाल, चावल, आटा, तेल सभी के भाव आसमान छूने लगे हैं। यहाँ तक कि चीनी और सब्जियां भी इससे अछूती नहीं रहीं। ऐसे में एक मध्यमवर्गीय परिवार के घर का भी बजट बिगड़ गया है। लेकिन मीडिया संस्थानों में महज ३००० से ७००० रुपये प्रतिमाह तनख्वाह पाने वाले पत्रकर्मियों के लिए शायद यह महंगाई कोई मायने नहीं रखती। तभी तो जहाँ सरकारी नौकरी में एक भृत्य यानि चपरासी की तनख्वाह भी १०००० रुपये से अधिक हो गई है, वहीँ इन मीडिया संस्थानों में मंदी के नाम पर नियमित वेतन वृद्धि से भी कर्मचारियों को महरूम रखा जा रहा है। सोचने वाली बात यह है कि कोस्ट कटिंग कि तलवार हमेशा निचले पदों के कर्मचारियों कि गर्दन पर ही चलती है। मोटी तनख्वाह पाने वाले उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों के लिए मंदी कोई मायने नहीं रखती। वेतन विसंगति कि बात करें तो एक ही संसथान में जहाँ एक ही प्रकृति का काम करने वाले एक पत्रकार को महज ५००० रुपये प्रतिमाह तनख्वाह मिल रही है, वही दूसरे को १२ से १५ हज़ार। फिर भी महंगाई का सबसे ज़्यादा रोना इन्ही उच्च पदों पर आसीन अधिकारी ही ज़्यादा करते है।
अज नित नए मीडिया संसथान खुल रहे है, जिसकी फीस हजारों रुपये है। प्रोफेसनल कोर्स होने के चलते छात्र इसमे प्रवेश लेते है। लाखों रुपये खर्च कर पढ़ाई/ प्रशिक्षण प्राप्त करते है। लेकिन उनके सपने तब टूट जाते है जब मीडिया संस्थानों में पहले से जमे दिग्गज ही उनका आर्थिक और मानसिक शोषण शुरू कर देते है।
सवाल लाख टेक का
मैं ये पूछना चाहता हूँ मीडिया संस्थानों के मालिको से कि क्या आप अकेले महज ७००० रुपये में अकेले एक महीने का खर्च चला सकते है?
मैं यही सवाल पूछना चाहता हूँ उन संपादकों से जो स्वयं तो मोटी तनख्वाह पा रहे है, लेकिन मालिक का चहेता बने रहने के लिए अपने साथ निचले पदों पर काम कर रहे कर्मचारियों के साथ न्याय नहीं करना चाहते।
मैं पूछना चाहता हूँ सभी मीडिया संस्थानों के मालिको और संपादको से कि बौधिक कार्य के लिए मजदूरी क्या शारीरिक कार्य करने वालों से भी कम देना न्याय है?
मअं पूछना चाहता हूँ कि क्या निचले पदों पर कार्यरत पत्रकारों के लिए महंगाई नही है?
मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या एंट्री लेवल के पत्रकारों के कुछ अरमान नहीं है?
मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या आपकी संतान भी एंट्री लेवल पर इतनी ही तनख्वाह पर गुज़ारा कर सकती है?
जब तक इन सवालों के जवाब मीडिया संस्थानों के मालिक और संपादक अपनी अंतरात्मा कि आवाज़ और मानवता को ध्यान में रखकर नहीं देते, तब तक परिस्थितियां नहीं बदल सकती।

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